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कविता

दृश्ययुग-2

केदारनाथ सिंह


उसे देखकर
कहना भूल गया
एक बात थी
जो तभी भूल गई थी
जब चला था घर से
और फिर कई दिनों तक याद रहा
वही एक भूलना
जो बाद में पता चला एक चेहरा था
जो न जाने कब
देखने के जल में
चुपचाप घुल गया
और बचा रहा देखना
जिसमें मिलना
छूना
सूँघना
चाहना
सब घुलते गए धीरे-धीरे।

 


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हिंदी समय में केदारनाथ सिंह की रचनाएँ